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सामाजिक कार्यकर्ता का राजनीति में अस्वीकार क्यों है? उत्तराखंड में अभी तक इन समाजिक कार्यकर्ताओं ने राजनीति में अजमाया अपना भविष्य : देखें एक क्लिक पर

सामाजिक कार्यकर्ता का राजनीति में अस्वीकार क्यों है?

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सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीति, दोनों ही समाज की सेवा के माध्यम हैं, लेकिन दोनों की प्रकृति और कार्यप्रणाली में काफी अंतर होता है। जहाँ एक ओर सामाजिक कार्यकर्ता जनता के मुद्दों को बिना किसी राजनीतिक एजेंडे के हल करने का प्रयास करता है, वहीं राजनीति में एक निश्चित विचारधारा, पार्टी लाइन और सत्ता की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा करना शामिल होता है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि उत्तराखंड की जनता सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति में क्यों अस्वीकार करती है और इसका क्या असर रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का राजनीति में आना: फायदे और नुकसान

फायदे:
1. जमीनी अनुभव:सामाजिक कार्यकर्ताओं का गहरा जुड़ाव समाज की जमीनी समस्याओं से होता है। उनके पास उन मुद्दों की गहरी समझ होती है जो जनता की भलाई के लिए जरूरी हैं।

2. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई: सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर भ्रष्टाचार और अनैतिक राजनीतिक चालों का विरोध करते हैं। उनका राजनीति में आना इन बुराइयों को खत्म करने का एक मजबूत कदम हो सकता है।

3. नीतिगत सुधार: सामाजिक कार्यकर्ता अगर राजनीति में आते हैं तो वे नीतियों में सुधार के लिए काम कर सकते हैं। उनका उद्देश्य सामाजिक भलाई के लिए होता है, जिससे वे संवेदनशील और मानवीय नीतियों का निर्माण कर सकते हैं।

4. जवाबदेही और पारदर्शिता: सामाजिक कार्यकर्ताओं के राजनीति में आने से राजनीतिक तंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ सकती है क्योंकि वे जनता के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

नुकसान:

1. राजनीतिक प्रणाली में ढलने की चुनौती: राजनीति का एक निश्चित ढांचा होता है जिसमें दलगत अनुशासन, धनबल और बाहुबल का बोलबाला होता है। सामाजिक कार्यकर्ता इस भ्रष्ट प्रणाली में फिट नहीं हो पाते और अक्सर उनका संघर्ष कुंद हो जाता है।

2. विचारधारा का दबाव: राजनीति में आने के बाद, सामाजिक कार्यकर्ता को एक पार्टी की विचारधारा और एजेंडा का पालन करना पड़ता है, जिससे उनके स्वतंत्र कार्य करने की क्षमता सीमित हो जाती है।

3. जनता की अपेक्षाएं: जब सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति में आते हैं, तो जनता की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। अगर वे उन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते तो उनके प्रति जनता का विश्वास कम हो जाता है।

4. विरोध और आलोचना: राजनीति में उतरने के बाद, सामाजिक कार्यकर्ता को विरोधी पार्टियों और आलोचकों का सामना करना पड़ता है, जो उनके सामाजिक काम को कमजोर कर सकता है।

उत्तराखंड की जनता सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति में क्यों स्वीकार नहीं करती?

उत्तराखंड की जनता का सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति में अस्वीकार करने के कई प्रमुख कारण हो सकते हैं:

1. राजनीति और समाजसेवा में अंतर: उत्तराखंड के लोग मानते हैं कि समाजसेवा और राजनीति में फर्क है। जहाँ समाजसेवा सीधा जनता के हित में होती है, वहीं राजनीति का मुख्य उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना होता है। इस कारण लोग सामाजिक कार्यकर्ताओं से राजनीति में निष्कलंक बने रहने की अपेक्षा करते हैं।

2. प्रभावशाली जनसंपर्क की कमी: सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर जनता के जमीनी मुद्दों को समझते हैं, लेकिन चुनावी राजनीति में जनसंपर्क, प्रचार और संगठन की आवश्यकता होती है, जिसमें वे कमज़ोर साबित होते हैं। राजनीति में सफल होने के लिए बड़े पैमाने पर समर्थन जुटाने और प्रचार की कला में महारत जरूरी होती है, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

3. भ्रष्ट राजनीति से असहमति: उत्तराखंड की जनता राजनीति को भ्रष्टाचार और स्वार्थ से जोड़कर देखती है। वे मानते हैं कि राजनीति में आने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता भी भ्रष्ट हो सकते हैं, जिससे उनके प्रति जनता का विश्वास डगमगा जाता है।

4. स्थानीय राजनीति में जातिगत और क्षेत्रीय प्रभाव: उत्तराखंड में राजनीति का काफी हिस्सा जातिगत और क्षेत्रीय प्रभावों से प्रेरित होता है। सामाजिक कार्यकर्ता, जो अक्सर इन ध्रुवीकृत राजनीति से दूर रहते हैं, जनता का वोट पाने में असफल हो जाते हैं क्योंकि वे स्थानीय समीकरणों में फिट नहीं बैठ पाते।

क्या जनता ठगी गई है या समाज तैयार नहीं है?

इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी हो सकता है कि विगत में कुछ ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं जिन्होंने चुनाव लड़ने के बाद जनता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया, जिन मुद्दों को लेकर वे सत्ता के धुर्विरोधी थे वे उन्हीं मुद्दों नीतियों का समर्थन करने लगे जिससे लोगों का विश्वास टूट गया। जनता ऐसे कार्यकर्ताओं को समाज के सेवक के रूप में देखना चाहती है, लेकिन जब वे चुनाव लड़ते हैं तो उन पर भ्रष्टाचार और राजनीतिक स्वार्थ का आरोप लगने लगता है। जैसे कि हाल के अनेकों जनप्रतिनिधियों को आप विधानसभा में देख सकते हो।
दूसरी ओर, उत्तराखंड की जनता अभी पूरी तरह से राजनीतिक बदलावों के लिए तैयार नहीं दिखती। राज्य में पारंपरिक राजनीति का प्रभाव है, जिसमें वंशवाद, जाति, और क्षेत्रीय समीकरण अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ताओं की राजनीति में प्रवेश की स्वीकृति अभी समय की मांग हो सकती है, लेकिन यह आसान नहीं है।

कौन से सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव लड़े और हार गए?

उत्तराखंड में कई प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चुनाव लड़े हैं, लेकिन सफलता नहीं पाई:

1. अनुपम मिश्र: प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता जिन्होंने जल संरक्षण और पर्यावरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने राजनीति में भी हाथ आजमाया, लेकिन चुनाव में सफल नहीं हो सके।

2. संदीप पंवार: एक सामाजिक कार्यकर्ता जिन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए कई आंदोलन चलाए, लेकिन राजनीतिक मंच पर वह कारयकरताराजनीतिकपरभावी नहीं हो पाए।

3 : बॉबी पँवार जो भृष्टाचार की आंधी से उठ कर राजनितिक गलियारों में धूल खाते रहे मगर सफलता नही मिली।

4: अनूप नौटियाल एक बड़े सोच के साथ स्विट्जरलेंड से भारत लोटे थे टेक्सटैल क्षेत्र में जाना माना नाम अनूप नौटियाल को भी जनता ने नकार दिया।

5: मनीष सुंदरियाल :आंदोलन से जन्मा एक युवा जो स्वरोजगार के क्षेत्र में बड़ा नाम हैं उत्तराखण्ड में अभीतक के हर विधानसभा का चुनाव लड़ा हैं जिला पंचायत तक का चुनाव लड़ कर आखिर राष्ट्रीय पार्टी का दामन पकड़ अपनी पहचान खो चुका हैं।

6: कविन्द्र ईश्तवाल जाना माना नाम समाज हित में सदैव समर्पित मगर जनता ने उन्हें भी नकार दिया भारिभरकम सतपाल महाराज को सीधे चुनौती देकर वे जनता के बीच पहुचें तो जनता उन्हें पहचानने में भी नही आई।

7: हरीश नाथ एक ऐसा नाम जिसे दिल्ली से उत्तराखण्ड तक लोग जानते थे पर पहले ही चुनाव ने उन्हें यह बता दिया कि राजनीति में छल कपट जरूरी हैं।

इस तरह अनेकों लोग हैं दिगमोहन नेगी कर्नल अजय कोठियाल पूनम कैंतुरा ,आशुतोष नेगी अनु पंत दानू विष्ट शिव प्रसाद  मैडम रजनी रावत इन सब का पूरा उत्तराखण्ड में सामाजिक क्षेत्र में बहुत बड़ा नाम हैं। रोजगार सृजन में जितना नाम कर्नल कोठियाल का हैं उतना किसी अन्य का नही उन्होंने युवाओं को आर्मी में जाने के लिए अनेकों कैम्प संचालित किये हजारों युवा उन के कैम्प से प्रशिक्षित होकर देश सेवा में लगे हैं मगर जब चुनावी मैदान में कर्नल कोठियाल उतरे तो उन युवाओं के घर वाकों ने भी कर्नल कोठियाल का समर्थन नही किया। यह तो बहुत छोटी लिस्ट हैं हाल के वर्षों में जिन की राजनितिक विफलता लोगों को याद होगी अन्य भी अनेकों नाम ऐसे हैं जो समाज को दिशा व दसा दे सकते थे मगर समाज ने उन्हें राजनीति में नकार दिया।

क्या सामाजिक कार्यकर्ताओं का राजनीति में आना जरूरी है?

यह एक बहस का विषय है। जहाँ एक ओर सामाजिक कार्यकर्ता जनता के लिए काम करने का एक शुद्ध और नैतिक तरीका अपनाते हैं, वहीं राजनीति में प्रवेश करके वे बड़ी नीतिगत बदलाव कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि जनता और सामाजिक कार्यकर्ता दोनों के बीच एक नया रिश्ता बने, जहाँ राजनीति को सेवा का ही एक रूप समझा जाए।

निष्कर्ष

उत्तराखंड की जनता ने अभी तक सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति में स्वीकार करने में रुचि नहीं दिखाई है, जिसका मुख्य कारण जनता का राजनीति और समाजसेवा के बीच के अंतर को लेकर भ्रमित होना है। हालांकि, समय के साथ यह सोच बदल सकती है, अगर सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति में प्रवेश करते हुए भी अपनी साख को कायम रख पाते हैं और जमीनी मुद्दों को हल करने की दिशा में काम करते हैं।

देवेश आदमी, की कलम से