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राज्य आंदोलन की वो काली रात जिसे याद करते ही में सिहर जाता हूं- आदोंलनकारी गोविंद राणा की कलम से

एक अक्टूबर की वह काली रात जिसकी सुबह शायद दिल्ली मैं होनी थी भिलंगना से हम कई युवा इस एतिहासिक पर्व के लिऐ प्रस्थान किये थै सभी मैं जोश था जुनून था आत्मविश्वास था कि 2अक्टूबर को अहिंसा के पुजारी गाधी जी की पुण्यस्मृति मैं हमें भी न्याय मिलेगा ….. परंतु इतिहास का वहा काला दिन 2 अक्टूबर आज भी मैरे शरीर मैं सिरहन सी पैदा करता है किस तरह हम पहाड़ी निहत्थे लोग बढे चले जा रहे थै बिना किसी अनहोनी के ओर फिर हमारे साथ हमारी मां बहिनो के साथ जो अत्याचार हुआ मुज्जफरनगर, मसूरी, खटीमा, मैं बयां करना शायद ही मुस्किल हो …… जिस सरकार ने समाजवाद को धता बता,कर निहत्थों पर गोलियां बर्षा दी भरी बसो मैं आग लगवादी जान बचाने को भागी मैरी मां बहिनो कि…….। सारे निहत्थे आंदोलन कारी 1994 की एक अक्टूबर की उस काली रात को उत्तर प्रदेश के उस ब्रबर पुलिस अधिकारियों, निक्कमे उन बल्तकारीयो के सामने विवस् थे। नहीं मालूम था आगे क्या होने वाला है। ओर जो हो रहा था वहा खौपनाख था जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने कि हो जिसकी यादे आज भी शरीर मैं सिहरन सी पैदा करती है उस भयावह मंजर के बीच हमारा सोभाग्य रहा कि हमारी बस मुज्जफरनगर के इस भयावह परस्थिति को चीरती हुई आगे निकल गई पंरतु ओ चीख पूकारे आज भी झकझोर दैती है, निशव्द सा कर दैती है , शुन्य मैं लोटा दैती है, ओर आज के प्रपेक्ष्य मैं कचोटती हैं…..। खैर सभी लोग ईस भयावह मंजर से कापंते हुऐ आगे बढे थे कि अहिंसा के पुजारी कि जंयती पर देश की राजधानी मैं कुछ सुकून मिलेगा ,अहिंसा के पुजारी के जन्मदिन पर राज्य बनने का सपना पूरा होगा। इस उत्साह में मैं स्वयं भी अपने साथियों के साथ आगे बढ़ा और दिल्ली पहुंचने का प्रयास करने लगा। लेकिन यहां तो सब उल्टा ही था और धोखा था। !!अहिंसा के बजाय बेवजह,रंजिश के साथ खूनी सरकार खड़ी थी! जो अपनी प्रजा की सुरक्षा के बजाय उनके कत्ल के लिए खड़ी थी। कत्ल करने की फिदरत में थी। यहां हमारा आतिथ्य आसुं गैस के गोले , पानी की बोछारे , ओर लाठी डंडों से हुआ अनायास ही इधर उधर भटकते मार खाते हम दिल्ली के अनजान शहर मैं अपनी आजादी कै पन्ने समेटने की कोशिश कर रहै थै ….। ओर हमारे परिवार रेडियो पर सिर्फ सुनकर सिर्फ उस भीड़ की सकुशलता की कामना कर रहे थै कि जिसमें सायद उनका बेटा हो …….। उसी कुशल कामना का आशीष है आज मैं यह पीड़ा ब्यक्त कर रहा हुं आज समाज हमारे उस दर्द को भुलकर जिस प्रकार उत्तराखंड नव निर्माण कर रहा है उससे मैं स्वतः ब्यत्थित हू आश्चर्य मैं हूं ओर खेदजनक स्थिति मैं हूं कि आखिर यही था संघर्ष उस उत्तराखंण्ड का ……. ओर इसीलिए आहुतियां हुई प्राणो की इस उत्तराखंण्ड कै लिऐ…….. ओर क्या एसे दर्द मिट पाऐगा मैरे जैसे आंदोलनकारी का , ओर क्या हकिकत मैं यही था मैरे संघर्षों का उत्तराखंण्ड…….।। गोविन्द सिह राणा 2अक्टूबर मुजफ्फरनगर मैं बचा हुआ एक आदोंलनकारी

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