प्रकृति के त्रय गुणों अर्थात सत्व रजस व तमस के असंतुलन का परिणाम ही उसकी प्रदूषित विकार है इसी चिंतन के क्रम में प्रकृति के भारतीय दार्शनिकों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि जिस प्रकार प्रकृति के प्रतिपादित सत्व रजस व तामस गुणों के संतुलन में प्रक्रति प्रदूषण विकार रहित होती है उसी प्रकार प्रकृति का प्रतिनिधि शरीर पिंड भी कफ अग्नि पित तथा वायु वात की साम्यावस्था में दीर्घ काल तक विकार रहित रह सकता है आयुर्वेद शास्त्र का आविर्भाव उक्त सिद्धांत पर अविलम्बित है ।
उक्त विचार ज्योतिष्पीठ व्यास आचार्य शिव प्रसाद ममगाईं जी ने राणा परिवार के द्वारा आयोजित ठाकुर पुर प्रेमनगर श्यामपुर देहरादून में चल रही श्रीमद्भागवत कथा में व्यक्त करते हुए कहा कि अचेतन होने पर भी क्षीर दुग्ध की भांति प्रकृति की चेष्टा होती है जिस प्रकार के स्तन से शिशु के लिए दुग्ध स्वतः निसृत होने लगता है उसी प्रकार चेतन पुरुष के भोग के लिए प्रकृति चेष्टित होती है प्रकृति निसृत भाव से स्वभावश प्रवर्त होती है अनादि काल के कर्मो के आकर्षण के प्रभाव से प्रकृति भी प्रवर्त होती है अर्थात जीवात्मा जब तक कर्ता के साथ भोग करता है तब तक प्रवर्ति अपने कर्म के द्वारा ही उसके लिए साधन उपलब्ध कराती है वस्तुतः प्रकृति का कार्य परिणाम तो जीवात्मा के भोग हेतु सेवारत रहता है लेकिन वह सेविका है नही जिस प्रकार माता अपने शिशु के लिए स्वभाववश आहार पान तथा मल शौच आदि कार्य सेवाभाव व मात्र भाव से करती है उसी प्रकार प्रकृति भी जीवात्मा के लिए सभी प्रकार के भोग साधन प्रस्तुत करती है अतः प्रकृति माता के तुल्य आदरणीय है अब प्रश्न यह है कि वह इन काम वासनाओं के सुख दुख को प्रस्तुत क्यों करती है वस्तुतः प्रकृति स्वतंत्र नही है अचेतन है उसके सभी कार्य स्वभाववश ही त्रय गुणों के रूप में होते हैं दर्शन शास्त्र के प्रथम सूत्र के अनुसार तीन प्रकार के दुखों का पूर्ण रूप अभाव प्रथम पुरुस्वार्थ मोक्ष है ये तीन प्रकार के दुख क्रमशः आध्यात्मिक आदिभौतिक आदिदैविक हैं इनसे पूर्णरूपेण निवर्ती ही प्राणी का मुख्य उद्देश्य है चार प्रकार के पुरुस्वार्थ कहे गए हैं धर्म अर्थ काम मोक्ष इनमें सर्वश्रेष्ठ पुरुस्वार्थ मोक्ष है जो कि सांख्य दर्शन सहित प्रायः सभी भारतीय दर्शनों का परम लक्ष्य है सांख्य मत में प्रत्यक्षतः दिखाई देने वाले पदार्थो द्वारा दुख की पुर्णतः निवर्ती नही होती है कारण यह है कि भौतिक साधन अनित्य और निस्सार है इनसे लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो सकती है परंतु दुखो से पूर्णरूपेण मुक्ति नही मिल सकती है मोक्ष के उत्कर्ष से उसकी सर्वश्रेष्ठता वेद द्वारा प्रतिपादित है सांख्य दर्शन की मान्यता है कि दुखों का कारण अविवेक है और यह अविवेक प्रकृति और पुरुष आत्मा के परस्पर संयोग के कारण होता है अतः सांख्य प्रकृति के मौलिक स्वरूप की दार्शनिक व्याख्या करने का प्रयास करता है क्योंकि सांख्य मतानुसार प्रकृति पुरुष विषयक ज्ञान हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है
इस अवसर पर मुख्य रूप से कांग्रेस के प्रदेश वरिष्ठ उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना नें कहा धर्म कर्म में माताओ का योगदान महत्वपूर्ण होता है समाज को दिशा देनें बच्चों को संस्कार देने पती को सुधारने में आपका हाथ होता भागवत महापुराण मोक्ष ग्रंथ है जो जानें से मरण व मरने के बाद जन्म मरण से छुड़ा देता है और रामायण जीने का ज्ञान देते है समाज को दिशा देने माताओं की अ।म भुमिका होती है वहीं जर्नल ओमप्रकाश राणा नें भी कथा श्रवण किया साथ में सुदर्शन सिंह राणा जी अधिराज सरोज संगीता शिवांग गजपाल राणा शिवदयाल राणा सज्जन सिंह अमीरचंद पदमा देवी लक्ष्मण बर्थवाल रेखा भरत बर्थवाल रिंकी केसर सिंह भण्डारी चन्द्रकला जीतपाल नेगी शशी नेगी हुक़्म विष्ट शांति विष्ट ताजबर बासकंडी सुमन बासकंडी देवेंद्र नेगी सौम्या नेगी विकास नेगी मेघा जितेंद्र कंडारी डौली प्रभा रावत युद्धबीर नेगी विक्रम नेगी दर्शनी देवी दरवान नेगी दलबीर बसंती बड़थ्वाल कीर्ति भण्डारी मेहरवान कठैत महिपाल फ़र्श्वान विजय रावत आदि भक्त गण भारी संख्या में उपस्थित थे।।