आत्मा के प्रेम में शुद्ध भगवत्ता है आचार्य ममगांई* आजकल लोंगो ने प्रेम को सुखोपभोग समझकर दूषित कर दिया प्रेम

आत्मा के प्रेम में शुद्ध भगवत्ता है आचार्य ममगांई*
आजकल लोंगो ने प्रेम को सुखोपभोग समझकर दूषित कर दिया प्रेम

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तो भगवान का स्वरूप है
शरीरों के प्रेम में काम है।
मन के प्रेम में राग है,मोह है।
आत्मा के प्रेम में शुद्ध भगवत्ता है।

ऐसे महापुरुष के संपर्क में आनेवाला भी महान हो जाता है।
आत्मरुप प्रेम पर्याप्त है। चेतना इसमें समाहित हो जाती है।बहिर्मुखता का अंत हो जाता है। यह बात आज कोटद्वार लालपुर के एक वैडिंग प्वाइंट में जगदीश बसूली की पुण्य स्मृति में बलूनि वन्धुओं के द्वारा आयोजित श्रीमद्भागवत महापुराण कथा के प्रथम दिन देवभुमि के प्रसिद्ध कथावाचक ज्योतिष्पीठ बद्रिकाश्रम व्यास पदाल॔कृत आचार्य शिवप्रसाद ममगांई जी नें भक्तों को सम्बोधित करते हुए कहा कि
शरीरों का प्रेम तो पूरी तरह से जड है, तमोगुणी, बहिर्मुखी।
उसका सुख भी उसी स्तर का है।
मन का प्रेम रजोगुणी है। इसमें राग मिला हुआ है,मोह मिला हुआ है।ऐसा व्यक्ति चाह सकता है कि दूसरा भी ऐसे ही राग युक्त हो,मोहमय हो।
इसमें एकाधिकार की चेष्टा हो सकती है। तमोगुणी प्रेम में चेष्टा ज्यादा प्रबल हो सकती है।वह शरीऱों को गुलाम बनाना है या गुलामों को शरीर समझता है।
गुलामों में आत्मा नहीं होती।
गुलामों में मन जैसी कोई चीज नहीं। वे बस गुलाम हैं,शरीर मात्र।वे केवल सुख सुविधा पाने के साधन हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं।
चारों तरफ इतना उतावलापन क्यों हैं?
एक ही कारण है-सम्मान की कमी।
सम्मान पूर्वक भी आदमी किसीको बचाते हुए निकल सकता है।
देहाभिमान में स्वयं बचते हुए निकलता है। सिर्फ वही है बाकी सब शरीरों की भीड है। आत्मा जैसी कोई चीज नहीं।हर आदमी स्वयं के अलावा बाकी सभीको भीड समझता है। फिर भीड कहां है?हर व्यक्ति ही तो है परम विशिष्ट। आचार्य ममगांई अपनें उद्बोधन जो सार गर्वित है उन्होंने कहा कि
मन का प्रेम फिर भी रियायत करता है। इसमें दूसरे से आशा अपेक्षा होती है इसलिए यह हुकूमत नहीं करता। फिर भी दूसरे के सहयोग की उम्मीद तो होती ही है।ऐसे में निराशा का भय,निराशा की आशंका हो सकती है।मन का खेल ऐसा ही है। फिर मन उससे बचने के लिए संबंध बनाता है-प्रेम का संबंध।
इसमें कर्ता भाव तो है ही।पीछे अहंकार खडा है अपने लिए सुख का प्रबंध करने में व्यस्त।
दूसरे में भी यही है तो वह भी संभव है प्रेम का संबंध बनाये।
वह ठुकरा भी सकता है।
उसे ऐसे एकतरफा संबंध की कुछ पडी नहीं होती।
दो रागबद्ध, मोह ग्रस्त व्यक्तियों में संबंध बन सकता है।वह अगर बना भी रहे तो मौत के साथ पूरा हो जाता है। उससे कोई संदेश नहीं मिलता।
संदेश मिलता है प्रेमपूर्ण व्यक्ति से।ऐसे व्यक्ति को संबंध बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।
क्यों बनाये संबंध प्रेम का किसीसे?
प्रेम सुखरुप है,प्रेम आनंदित है अपने में। अभाव मुक्त है इसलिए न किसी को साधन बनाने की जरूरत पड़ती है,न एकाधिकार करना पड़ता है।
प्रेम आत्मनिर्भर शक्ति है इसलिए भयचिंता,निराशा का कोई काम ही नहीं होता।

भयचिंता,निराशा आदि जहां भी है वहां प्रेम शरीर के,मन के तल का है। उसमें संबंध है।संबंध के अभाव में प्रेम निराश हो सकता है। एकतरफा प्रेम में यही समस्या होती है। फिर साम-दाम-दंड-भेद से संबंध बनाने की कोशिश होती है।
यह अहंकार ही है जो दूसरे को सुख का साधन बनाना चाहता है।
एक तो अहंकार मूर्छा फिर सुखाभास के लिए व्यग्र।
करेला कड़वा ऊपर से नीमचढा।
अहंकार मूर्छा ही सुखाभास के लिए व्यग्र हो सकती है।
होश है तो सुखाभास के लिए व्यग्रता होगी नहीं।
होश में आनंद है।ऐसा आनंद जो प्रेमरहित नहीं है।ऐसा प्रेम जो किसी पर निर्भर नहीं इसलिए सुख बचाने या सुख पाने के लिए संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं होती।
संबंध के पीछे दूसरे से सुख पाने की अपेक्षा है।यह प्रेमरहित अहंकार है।स्वयं प्रेमरहित है इसलिए सुखरहित है।
सुख के लिए प्रेम,प्रेम के लिए संबंध,संबंध के लिए कोशिश।
यह शृंखला है।
व्यक्ति निरहंकार है तो प्रेम और सुख की प्राप्ति भीतर से ही हो जाती है। बाहरी निर्भरता समाप्त हो जाती है।
उसके प्रेमस्वरूप के संपर्क में जो भी आता है उसे सुख होता है।
सुख पानेवाला उस संबंध को बचाने की कोशिश कर सकता है जबकि इसकी जरूरत नहीं होती।जो वाकई में प्रेमस्वरूप है वह सभी को सभी प्रकार के भयों से मुक्त कर देता है।उसके द्वार सदा खुले हैं। कोई भी आये,कभी भी आये उसका हमेशा स्वागत है। कोई नहीं आना चाहे तो उसकी मर्जी।
जो प्रेमस्वरूप है वह आनंदस्वरुप है।जो आनंदस्वरुप है वह किसीसे संबंध नहीं बनाता।संबंध बनाने के पीछे कारण होता है।
यह हृदय का निरपेक्ष संबंध होता है।
आप भी सुखी, मैं भी सुखी,आप भी प्रेम से भरे हुए, मैं भी प्रेम से भरा हुआ। अभाव है नहीं।अभाव हो तो संबंध बनाने की जरूरत पड़ती है। जहां सब सुखी तथा प्रेमपूर्ण हैं वहां अगर सबंध है भी तो वह स्वस्थ संबंध है-हृदय से हृदय का संबंध।
कोशिश इसीको समझने की होनी चाहिए।यह समाधान स्वरुप है बाकी सबमें उपद्रव है।
अहंकार प्रेम बनाये रखने की कोशिश कर सकता है लेकिन वह वस्तुत:संबंध बनाये रखने की कोशिश ही है।
अहंकार निरहंकार, प्रेमपूर्ण होने की कोशिश कर सकता है मगर पीछे उसका प्रयोजन खड़ा है।
कोई सचमुच प्रेमपूर्ण होने के लिए निरहंकार होना चाहता है तो उसका उद्देश्य अच्छा है।
निरहंकार होने की ईमानदार कोशिश के साथ प्रेम में वृद्धि होती है।प्रेम में वृद्धि के साथ समस्याओं में कमी आने लगती है। स्वाभाविक है।
यह ऐसा विषय है जिस पर सभी शुभचिंतकों को अवश्य चिंतन करना चाहिए। लोगों को अनावश्यक दुख,पीडा से मुक्त करना सच्ची सेवा है।
सर्वभूतहितेरता:।
अगर हम अपने सुख के लिए लोगों से अहंकार पूर्ण संबंध बनायेंगे तो किसीको हमसे खुशी नहीं होगी।
हम सचमुच प्रेमपूर्ण हैं तथा अपने सुख के लिए अहंकार पूर्ण संबंध नहीं बना रहे हैं तो सभीको प्रसन्नता होगी।
सार बात है नासमझ संबंध बनाता है फायदा देखकर।
समझदार संबंध नहीं बनाता।वह पूरी तरह प्रेम से भरा है।प्रेम कभी फायदे की भाषा में सोचता नहीं।
सोचे तो प्रेम कहां?
ये सारी बातें व्यक्तिगत रूप से समझने के लिए हैं।
किसीने ठीक लिखा-
“अच्छे विचारों का असर इसलिए नहीं होता
क्यों कि लिखनेवाले और पढ़ने वाले दोनों ये समझते हैं कि ये दूसरों के लिये हैं।”
हम स्वयं व्यक्तिगत रूप से इसे समझते हैं तो यह भूल नहीं करेंगे।हम स्वयं प्रेमपूर्ण होंगे तथा फायदे के लिए संबंध नहीं बनायेंगे।
आज विशेस रूप से सुशीला बलूनी प्,दीप बलूनी अनिल बलूनी रमेश जखवाल शिखा जखवाल सरिता बलूनी शशी बलूनी धर्मानन्द बलूनी राजेश्वरी खन्तवाल निता बडोला आचार्य सुधीर दुदपुड़ी आचार्य सन्दीप बहुगुणा आचार्य दिवाकर भट्ट आचार्य सूरज पाठक आचार्य हिमांशु मैठानी विरेन्द्र खन्तवाल रेंजर दिनेश बडोला अनूप नैथानी अनिल चमोलीआदि बहु संख्या में भक्तजन थे