डांडी कांठी क्लब द्वारा हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी उत्तराखंड का पारंपरिक लोक पर्व “इगास-बग्वाल” बड़ी धूमधाम मनाया गया। समाजिक संस्था डांडी कांठी क्लब 2014 से हर वर्ष “इगास-बग्वाल” मनाती आ रही है। संस्था का “इगास-बग्वाल” मनाने का उद्देश्य है कि विलुप्त हो रही परंपरा को जीवंत रखना है। रिंग रोड़ के समुदायिक भवन गढ़वाली कॉलोनी में आयोजित कार्यक्रम में रणसिंगा सहित ढोल-दमांऊ की थाप पर लोग जमकर थिरके। साथ ही लोगों को पारंपरिक पकवान अरसे रोट भी वितरित किए गए। वहीं लोगों ने जमकर भैलो खेला। ढोल-दमांऊ की थाप पर लोगों सहित सभी अतिथि जमकर थिरके।
समाजिक संस्था डांडी कांठी क्लब के अध्यक्ष विजय भूषण उनियाल का कहना है कि “इगास-बग्वाल” हमारी संस्कृति सभ्यता को प्रदर्शित करता है। इसी को देखते हुए डांडी कांठी क्लब हर वर्ष “इगास-बग्वाल” कार्यक्रम का आयोजन करती है। जिससे हम संस्कृति को संजों कर रख सके। वार्ड संख्या 65 के पार्षद नरेश रावत का कहना है कि “इगास-बग्वाल” हमारी पहाड़ की संस्कृति है। इसके संवर्धन और संरक्षण के लिए कार्य करते रहने चाहिए। जिससे कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी परंपरा व संस्कृति को न भूले।
पुलिस महानिदेशक उत्तराखंड अशोक कुमार जी ने क्लब के कार्यों की सराहना की। महापोर सुनील उनियाल गामा जी ने क्लब के पहाड़ की संस्कृति के प्रति समर्पण की तारीफ की। वहीं उत्तराखंड पेयजल जलनिगम प्रबंधन निदेशक एस सी पंत जी ने पहाड़ की संस्कृति के संरक्षण केलिए क्लब की जमकर तारीफ की।
समाजिक संस्था डांडी कांठी क्लब द्वारा आयोजित में कार्यक्रम में महापौर सुनील उनियाल गामा, डीजीपी अशोक कुमार, उत्तराखंड पेयजल जलनिगम प्रबंधन निदेशक एस सी पंत, मंडल अध्यक्ष प्रकाश बड़ोनी, प्रदीप कुकरेती आंदोलनकारी, दीवान नेथवाल लोक गायक नीति माणा, पार्षद नरेश रावत आदि मौजूद रहे।
भैलो खेल, इगास का रहा मुख्य आकर्षण
“इगास-बग्वाल” में आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ एक रस्सी से बांधी जाती है। इसके बाद गांव में एक जगह पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है।
“इगास-बग्वाल” मनाने की मान्यताएं
आपको बता दें कि दिवाली के 11 दिन बाद पहाड़ में एक ओर दिवाली मनाई जाती है, जिसे इगास कहा जाता है। इस दिन मीठे पकवान बनाए जाते हैं और शाम को भैलो जलाकर देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। इगास पर्व मनाए जाने की यहां अलग अलग कहानी जुड़ी है। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम जब रावण का वध करने के बाद अयोध्या पहुंचे तो इसकी सूचना उत्तराखंड को 11 दिन बाद मिली और तब यहां दीपावली मनाई गई थी।
वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार करीब 400 साल पहले वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार, श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों से योद्धा बुलाकर सेना तैयार की गई। इस सेना ने तिब्बत पर हमला बोलते हुए वहां सीमा पर मुनारें गाड़ दी थीं। तब बर्फबारी होने के कारण रास्ते बंद हो गए। कहते हैं कि उस साल गढ़वाल क्षेत्र में दीपावली नहीं मनी, लेकिन दीपावली के 11 दिन बाद माधो सिंह भंडारी युद्ध जीतकर गढ़वाल लौटे तो पूरे क्षेत्र में भव्य दीपावली मनाई गई। तब से कार्तिक माह की एकादशी पर यह पर्व मनाया जाता है।