डॉ.वीरेंद्र बर्त्वाल ,देवप्रयाग
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर में वेदविभाग की संगोष्ठी
देवप्रयाग। संस्कार का आशय शुद्धिकरण से है। प्राकृतिक रूप से पैदा होने के बाद संस्कार हमें समाज में श्रेष्ठ जीवन जीने योग्य बनाते हैं। वे हमें उत्कृष्ट व्यवहारी बनाते हैं। संस्कार हमें उत्तरदायित्व प्रदान करते हैं।
यह बात केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर में आयोजित वेद विभाग की राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने कही। ’षोडशसंस्काराणां महत्त्वं प्रासंगिता च’ विषय पर आयोजित इस दो दिवसीय सेमिनार के उद्घाटन अवसर पर मुख्य अतिथि पंचतत्त्व संस्था के संस्थापक गुरुजी मनोज जुयाल ने बतौर मुख्य अतिथि कहा कि संस्कार हमारे सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन को मजबूती ही प्रदान नहीं करते, परलोक का मार्ग भी सुगम बनाते हैं। उन्होंने जन्म से पूर्व के तीन प्रमुख संस्कारों-गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन संस्कारों का महत्त्व बताते हुए कहा कि बच्चा गर्भ में जिस प्रकार के वातावरण में पलता है, उसके शरीर और मन पर उसका पूरा प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यूह के द्वार भेदने की जानकारी के उदाहरण से बात को समझा जा सकता है। हिन्दुओं के सोलह संस्कारों पर प्रकाश डालते हुए गुरुजी ने कहा कि आधुनिकता के चलते हमारे संस्कारों की क्रिया में फीकापन आने लगा है। कुछ लोग संस्कारों के एक औपचारिकता समझते हैं। इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे हैं। आज पश्चिम में भी लोग भारत के जन्मपूर्व के संस्कारों का महत्त्व समझते हुए उन्हें अपना रहे हैं। हमारे संस्कार विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं, इसलिए विदेश मंे उन्हें महत्त्व दिया जा रहा है।
विशिष्ट अतिथि विश्वविद्यालय के गंगानाथ झा परिसर, प्रयागराज में वेदविभाग के अध्यक्ष प्रो. मनोजकुमार मिश्र ने सोलह संस्कारों की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा कि भारत में संस्कारों की इस व्यवस्था का अनुकरण अन्य देशों मंे भी किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि वेद विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं। वे हमारे जीवन की अनेक जिज्ञासाओं को शांत करते हैं। संस्कार भारतीय ज्ञान परम्परा और श्रेष्ठता की महत्त्वपूर्ण निधि हैं।
मुख्य वक्ता इसरो के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. ओमप्रकाश पांडेय ने भारत देश के नामकरण पर विवेचन करते हुए कहा कि यहां भरताग्नि थी, इसलिए हमारे देश का नाम भारत पड़ा। यहां तीन सप्तसिंधु थे। सनातन धर्म में यज्ञोपवीत धारण करने के वैज्ञानिक और धार्मिक कारणों तथा महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने तिथि, वार, नक्षत्र, वेद, गुण, काल, मास तथा तत्त्वों के आधार पर जनेऊ निर्माण की विधि और उसे धारण करने के नियम बताये। उन्होंने कहा कि यज्ञोपवीत पहनने के अधिकारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी हैं।
उन्होंने कहा कि हमारे धर्मग्रन्थ हमें ’मनुर्भव’के माध्यम से महामानव बनने की प्रेरणा देते हैं। हमारे विवाह संस्कार में कन्यादान का उल्लेख होता है, यह कन्यादान नहीं, गोत्रदान है। कन्या को दान दिया ही नहीं जा सकता। सात फेरों का भी उल्लेख है, यह सात फेरे नहीं, सप्तपदी है। उन्होंने कहा कि विवाह संस्कार संपूर्ण होने के बाद गुरु के दर्शन का भी उल्लेख है। भारतीय समाज में आश्रम परम्परा पर उन्होंने कहा कि यह बेहतर जीवन प्रबन्ध है। हमारे शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के कर्जों से मुक्ति के लिए पितृ, ऋषि और देव ऋणों से उऋण होने का प्रावधान है। उन्होंने कहा कि हमारे धर्मगुरुओं और पंडितों को समाज में हमारे संस्कारों की सही व्याख्या करनी चाहिए और संस्कारों में आ रही विकृतियों तथा गलत धारणाओं कों दूर करना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाम मंे बढ़ते अपराधों को रोकने के लिए संस्कारों की बड़ी भूमिका है। उन्होंने स्वगोत्री विवाह के वैज्ञानिक आधार पर नुकसान भी गिनाये। सम्मानित अतिथि के रूप में नगरपालिकाध्यक्ष कृष्ण्कांत कोटियाल ने वक्ताओं के व्याख्यानों की सराहना की।
इससे पहले संगोष्ठी तथा वेदविभाग के संयोजक डॉ. शैलेन्द्रप्रसाद उनियाल सनातन धर्म के सोलह संस्कारों का क्रमवार विश्लेषण कर उनके वैज्ञानिक आधार तथा महत्त्व बताया। संगोष्ठी की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए डॉ. उनियाल ने बताया कि संगोष्ठी ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों मोड में आयोजित की जा रही है। कार्यक्रम में निदेशक प्रो.पीवीबी सुब्रह्मण्यम ने सभी अतिथियों का स्मृतिचिह्न भेंट कर और माल्यार्पण कर स्वागत किया।
इस अवसर पर आईक्यूएसी के संयोजक डॉ. सच्चिदानंद स्नेही, डॉ. वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल, डॉ. सुरेश शर्मा, डॉ.अमन्द मिश्र, डॉ.श्रीओम शर्मा,डॉ. अनिल कुमार, डॉ. संजीव भट्ट, डॉ. मनीष शर्मा, डॉ.अंकुर वत्स, डॉ. सुधांशु वर्मा, डॉ. श्रीओम शर्मा, जनार्दन सुवेदी, डॉ. आशुतोष तिवारी, पंकज कोटियाल, डॉ. मनीषा आर्या, डॉ. अवधेश बिजल्वाण, नवीन डोबरियाल आदि उपस्थित थे।