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विश्वशांति का पाठ पढ़ाती है भारतीय संस्कृति केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर में राष्ट्रीय संगोष्ठी

देवप्रयाग। संस्कृति का सम्बन्ध आत्मा से है। भारतीय संस्कृति सहिष्णुता, लोककल्याण और विश्वशांति का पाठ पढ़ाती है। आज कुछ लोग हमारे प्राचीन ज्ञान, परम्पराओं की भले ही आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाते, क्योंकि उनके पास इसका ठोस आधार नहीं है।
यह बात केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर में आयोजित न्याय एवं दर्शन विभाग की संगोष्ठी में सामने आयी। भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद के सहयोग से आयोजित इस तीन दिवसीय राष्ट्रीय के उद्घाटन अवसर पर उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दिनेश शास्त्री ने बतौर मुख्य अतिथि कहा कि भारत में वर्ण व्यवस्था का आधार और उद्देश्य जातिवाद नहीं रहा, अपितु यह विभागीय विभाजन है। हर मनुष्य से जन्म से शूद्र होता है, परन्तु वह कर्म के आधार पर वर्ण में परिवर्तित होता है। हम एक दिन में अनेक बार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों में परिवर्तित होते रहते हैं।
सारस्वत अतिथि उत्तराखण्ड के सूचना आयुक्त योगेश भट्ट ने सनातन धर्म के मंत्रों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ये हमारे ऋषि-मुनियों की हजारों वर्षों की साधना और शोध के परिणाम हैं। उन्होंने संस्कृत के छात्रों का आह्वान किया कि संस्कृत को पूजा-पाठ और अध्ययन-अध्यापन तक ही सीमित न रखें, बल्कि संस्कृत के छात्र ब्यूरेक्रेसी, राजनीति, समाजसेवा में भी जाएं, तभी सम्पूर्ण देश और विदेश में संस्कृत का डंका बज पाएगा। उन्होंने बच्चों को सूचना का अधिकार अधिनियम का महत्त्व बताते हुए कहा कि हमारे तंत्र में पारदर्शिता लाने के लिए यह महत्त्वपूर्ण और मजबूत हथियार है। यह लोकतांत्रिक देश की व्यवस्था में बहुत आवश्यक है।
विशिष्ट अतिथि उत्तरांचल प्रेस क्लब अध्यक्ष अजय राणा ने कहा कि देवप्रयाग जैसे दुर्गम क्षेत्र में केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का परिसर होना राज्य के लिए सौभाग्य की बात है। उत्तराखण्ड के दुर्गम क्षेत्रों में ऐसे ही महत्त्वपूर्ण संस्थान खुलें तो राज्य में पलायन पर काफी हद तक रोक लग पाएगी।
कार्यक्रम के अध्यक्ष परिसर निदेशक प्रो. एम.चन्द्रशेखर ने कहा कि भारतीय संस्कृति के तत्त्वों से साक्षात्कार और भारतीय नैतिक मूल्यों की जानकारी और महत्त्व बतलाने के लिए इस प्रकार के सेमिनार महत्त्वपूर्ण होते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति के विशेषताओं के कारण ही आज विश्व में अनेक देश उसकी प्रशंसा करने को विवश हैं। संयोजक न्याय दर्शन विभाग संयोजन डाॅ. सच्चिदानंद स्नेही ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का संचालन डाॅ. श्रीओम शर्मा ने किया।
उधर, संगोष्ठी के पत्रवाचन सत्र में लगभग 20 शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये। इस सत्र की अध्यक्षता डाॅ. शैलेन्द्रनारायण कोटियाल और संचालन डाॅ. शैलेन्द्र प्रसाद उनियाल ने किया। पत्र प्रस्तुत करने वालों में डाॅ.वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल, डाॅ. सुरेश शर्मा, डाॅ. अनिल कुमार, डाॅ. संजीव भट्ट, नंदिनी कोटियाल, डाॅ.मोनिका बोल्ला, डाॅ. मनीष शर्मा, डाॅ.अंकुर वत्स, डाॅ. सुधांशु वर्मा, डाॅ. श्रीओम शर्मा, जनार्दन सुवेदी, रघु बी. राज आदि शामिल थे।

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