(संकलन- अनिल सिंह नेगी,परिवहन अधिकारी )
उत्तराखंड देवभूमि, देवताओं का निवास स्थान रहा है। इसकी पुष्टि ऋग्वेद, स्कन्द पुराण सहित कई धार्मिक ग्रंथों में होती है। ऐतिहासिक काल में भी कई विद्वानों ने इस बारे में लिखा है। देवता निवास करते हैं या नहीं मैं उस तथ्य पर नहीं जाना चाहता लेकिन हां ये सत्य है कि हमने अपनी परम्पराओं में कण-कण में भगवान को पूजा है। जंगलों के पर्यावरण में कोई बिना कारण प्रवेश न करे जिससे कि वहां की आवोहवा खराब हो तो इसके लिए बणद्यैवता, आछरी लग जाती हैं। सुबह, दोपहर, शाम रात किस समय कैसे और कहां रहना है। किस मौसम में और क्या खाना है, कहां पर और किस तरह का निवास स्थान बनाना है, सब कुछ तो निर्धारित है /था और बिल्कुल साइंटिफिक। कुल मिलाकर परमिट सिस्टम है/था। हां, इनको एक्सीक्यूट करवाने के लिए किसी डाक्टर, इंजीनियर या जंगलात एक्सपर्ट की कमेटी की सिफारिशें नहीं होती, बल्कि भैरौं, नागर्जा नरसिंग, गौरिल और भगवती के ताड़े और क्वींकाळ से हर चीज की पुलिसिंग और एक्सिक्युशन होता है।
इसी कड़ी में मैं बात करना चाहता हूं, पांडवों की जिन्हें गढ़वाल, जौनपुर जौनसार में देवता के रूप में पूजा जाता है। गढ़वाल की केदारघाटी, रुद्रप्रयाग, चमोली और टिहरी क्षेत्रों में पांडवों को पंडौं देवता के रूप में पूजा जाता है और हर साल, दुसाला या तिसाला मंडाण लगता है जिसे पंडवार्त कहते हैं।
मैं यहां पर पंडवार्त के अन्तिम दिवस की प्रातः बेला पर जलघड़ी से पहले का जिक्र करना चाहता हूं। जब पंडौं की विदाई से पहले उन्हें मानसिक रूप से जाने के लिए तैयार करवाया जाता है तो वह क्षण अत्यंत कारुणिक होता है। उस वक्त पंण्डौंखोळी में रहने वाला ऐसा कोई प्राणी नहीं होता है जो रो न रहा हो। हमारे ढोल्या दाजुओं की कला और लोगों के संवेदनशील मन पूरे वातावरण को नम कर देते हैं। कुछ वीडियो यहां शेयर की जा रही हैं इस आशय के साथ कि आप सुने आपको भी लगेगा कि यों ही हमारी धरती को देवभूमि नहीं कहते हैं। यहां देवता मनुष्य में अवतरित होकर दर्शन देते हैं और मनुष्य भी भगवान से वह भाव बनाता है कि देवताओं को भी रुला देता है।
इस पोस्ट के माध्यम से उस समय देवता और ढोली के बीच उत्पन हो रहे भावों का दस्तावेजीकरण करना भी है।
इन वीडियो में बजीरा-जखोली (लस्या) के ढोल पंडित जगतु दा, सोनदास, विजेन्द्र (कळ्या), हर्षु लाल भाई, जीतपाल सहित सभी ढोलवादकों का योगदान है।
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै पण्डों की टोकरी
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै राजा धनंजय
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै बलि भीमसण
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै बिन्दुनाम गजा
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै गांडीव धनुष
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै नकुल सहदेव
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै जोद्वा बबरीक
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै बाळो नागमळ
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनी ह्वै राणी दुरपदा
हे पैतासार ह्वैग्ये, हे कनो ह्वै दुधाधारी नाग।
हां कन धणमण रौंदा, द्यवतौं कनो छोड़ला अपणों मैत
हां अंग का अगोया,द्यावा मैत्यौं शरीळ का बस्तर
हां बे आज जाण हमुन तै औखा नागळोक
हां तै सुति नागळोक, जख ऋतु न बसंत
मां जी तख बार न त्यौहार
हां, मैतासु धियांण बल कुरोध लगांदी
ब्याळि तक छया यख मैत्यों मुख बैठ्यां
हां, ब्याळि तक छा यख बार त्यौहार
भौळ बिटि रैंण, हे द्यवतौं तै सुनमुन द्ययूळ
हां मैतासु धियांण, हे भगवान भेंटुली बांधली
तुमारा छा मैती पण्डों तुम मैत्वाड़ा बुलैन
हां जैं भागी का होला मैती, सी मैत बुलोला
निरमैत्या धियांण मां जी धणमण रौंदी
निरमैत्या धियांण पण्डौं, धारू-खाळों रौंदी
हे अब द्यावा द्यवतौं जस का जौंदाळ
हे अब द्यावा द्यवतौं बल मन भरी आशीष।