साहित्य, संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ के प्रधान सम्पादक श्री!
‘साहित्य समाज का दर्पण होता है!’ ऐसा आमतौर पर कहा जाता है। लेकिन दर्पण जैसे सतही अर्थ में साहित्य को कैसे रखा जा सकता है? जबकि आधा समाज दर्पण के आगे और आधा दर्पण की पीठ पीछे रह जाता है। क्या दर्पण को भान होता है कि उसकी पीठ के पीछे क्या छिपा होता है? असल बात तो यह है कि जहां दर्पण को ढका होना चाहिए वहां वह स्वयं ही नंगा होता है। कहा ये भी जाता है कि ‘साहित्य वह होता है जो हित सहित होता है।’ इस युक्ति से भी समाज का हू-बहू रूप सामने नहीं आ पाता है। क्योंकि दर्पण के आगे खड़ा बछड़ा भी अपने सींगौं को ही बड़ा देखता है। असल बात तो यह है कि मात्र किताबों में ही साहित्य नहीं होता है। बल्कि पत्र पत्रिकाओं तथा आम अखबारों में भी साहित्य होता है। बशर्त हम दर्पण से बाहर झांके!
साहित्य को अगर हम इस दर्पण सन्दर्भ से हटा दें! और खुले मन से पत्रिकाओं की ही बात करें, तो कई ऐसी पत्रिकाएं हैं जो वर्षों से साहित्य सेवा में रत हैं। लेकिन उनमें से कई हमारे संज्ञान में ही नहीं हैं। उत्तराखण्ड से निकलने वाली ‘साहित्य और संस्कृति का सारस्वत अभियान’ पर केन्दित मासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ भी उन्हीं गिनी-चुनी पत्रिकाओं में से एक है।
वर्षों पहले किसी एक रोज इंदौर से जाने-माने चित्रकार, लेखक, समीक्षक आदरेय संदीप राशिनकर जी पूछ बैठे- ‘भाई कठैत! ‘सरस्वती सुमन’ भी पढ़ते हैं? मैंने कहा – जी मालूम नहीं है! आगे राशिनकर जी के शब्द सुने- ‘ये पत्रिका आपके उत्तराखण्ड से ही छपती है और आप कह रहे हैं आपको मालूम नही है। कमाल है! उसके मुखपृष्ठ पर मेरे रेखांकन छपते हैं। और पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं- डा.आनन्द सुमन सिंह! आप चाहें तो फोन नम्बर नोट कर लें।’
और यूं राशिनकर जी के माध्यम से ‘सरस्वती सुमन’ के प्रधान सम्पादक डा. आनन्द सुमन सिंह जी से आत्मीयता के तार जुड़े। और उसके बाद पत्रिका के सम्पर्क शूत्र-‘सारस्वतम्’, 01, छिब्बर मार्ग, आर्यनगर, देहरादून से अंक नियमित पहुंचते रहे।
‘डा.आनन्द सुमन सिंह’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। आपकी प्रतिभा के अनुरूप पत्रिका की भाषिक सादगी, कलात्मक पूर्णता देखते ही बनती है। हर एक अंक में वेद की किसी ऋचा और उसके सार से आप ‘मेरी बात….’ के रूप में अपनी बात रखते हैं। ऋतु अनुरूप ही अगर ‘मेरी बात….’ के कुछ अशों को पढ़ें तो शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं- फरवरी 2021 में लिखते है- ‘बसन्त आ गया है। पेड़ पौधे अब बौरा गये हैं। ठण्ड भी धीरे-धीरे अपना सामान समेट रही है। फूल खिले हैं। खेत में सरसों खिली है और गेंहूं के पौधे लहलहाकर हरियाली की नई कथा लिखने को आतुर हैं। इस आधार से जुड़े रहना सौभाग्य है।’
लेकिन ये क्या? अप्रैल -2023 के अंक में प्रकृति का यह रौद्र रूप भी देखा-‘प्रकृति ने किसानों के अरमानों पर एक बार फिर पानी फेर दिया है। अर्थात् रवि की फसल ओलों और वर्षा से अपना लहलहाता स्वरूप खो बैठी है, जिन आशाओं और विश्वास से ना जाने कितने सपने बुने गये थे- बेटी की शादी,बेटे का कॉलेज में दाखिला, घर की रंगाई पुताई,मरम्मत,कुछ नए सामान की खरीदारी आदि लगभग सभी सपनों को ब्रेक लग गया है।’
जून जुलाई तक आते-आते प्रकृति कुछ और करवट लेती है। तब जून 2022 के अंक में ‘मेरी बात…’ में तस्वीर कुछ यूं दिखती है- ‘आषाढ़ तप रहा है। भारत के कुछ क्षेत्रों में पारा 50 क आस-पास भी पहुँचा है। इमनें प्रकृति का केवल दोहन किया है,जब आवश्यकता हुई बिना किसी योजना के पेड़ काट डाले। गाढ़ गधेरे नदी नाले सब प्रदुषित कर दिये। अब यदि पारा नहीं चढ़ेगा तो क्या होगा? यह धरा अमूल्य है। हमने इसके संरक्षण और संबर्द्धन के लिये कुछ भी तो नहीं किया और अब वास्तव में बहुत देर हो चुकी है। किन्तु इतनी भी नहीं कि इसे सुधार न सकें। यदि आज से प्रयास करें तो यह धरती फिर से स्वर्ग हो सकती है।’
तपने के बाद पृथ्वी के भीगने के दिन शुरू होते हैं। तब अगस्त-22 में आपके भाव होते हैं- ‘देश के अनेक निचले भाग वर्षा के पानी से लबालब भरे हैं। कहीं बाढ़,कहीं भीषण बहाव हर ओर केवल जल ही जल। ‘इस बार बरस जाये जो इमान की बारिश/लोगों के जमीर पर धूल बहुत है।’ मानसून का आनन्द लीजिए केवल अपना या मानवों का नहीं, सभी जीव-जन्तुओं का ध्यान रखिये, क्योंकि सह अस्तित्व ही इस ब्रह्माण्ड का मूल मंत्र है।’ अक्टूबर -2022 में तस्वीर कुछ यूं दिखी- ‘पिछले अनेक सालों की तरह इस बार भी इंद्र देव की कृपा और अ-कृपा से देष के विभिन्न राज्य प्रभावित रहे। अनेक राज्य जहाँ पानी की एक-एक बूंद के लिये तरसते रहे वहीं कुछ राज्य घनघोर वर्षा से लबालब भी रहे। कहीं किसानों की बांछें खिलीं तो कहीं उन्हें मायूसियां हाथ लगीं।’
और दिसम्बर -2022 में! साल के इस हिस्से के लिए इस कलमकार की भी एक कविता की पंक्तियां हैं- ‘अन्त समय सोचा साल ने/कौन क्षण जीवन में उत्तम बीते/ कहां खड़ा था शीर्ष जनवरी में/दिसम्बर में फैंका कुदरत ने।’ लगभग वैसे ही वर्ष के अन्तिम मास को आनन्द जी वृद्धावस्था का जामा कुछ यूं दे देते हैं- ‘शीत का प्रकोप बेहतरीन रूप से आ गया है। जैसे कोई नवयौवना विवाह बंधन में बंधने के बाद खिल उठती है, निखर उठती है। प्रकृति और हमारा शरीर दोनों की लय को यदि ध्यान से देखें तो सीधे कहा जा सकता है हर मौसम का बाल्यकाल,युवावस्था, वृद्धकाल होते हैं। यही जीवन का शास्वत सत्य है। हमारा प्रयास प्रकृति की भांति ही बस यही मनुश्यता धर्म यज्ञ है।’ आपके इस धर्म यज्ञ के बहुत मायने हैं अग्रज श्री!
इसे भी देवयोग ही कह सकते हैं कि इस ज्ञान यज्ञ के पीछे आपकी सहधर्मिणी दिवंगत सरस्वती सिंह (05.01.1962 से 26.06.2001) की प्रेरणा रही। और उन्हीं की प्रथम पुण्यतिथि से ‘सरस्वती सुमन’ पत्रिका माह वार नियमित छपती रही। यहां तक की कोरोना महामारी की विपत्ति में भी पत्रिका ने न ही अंगड़ाई ली और न लंगड़ाई ही। ये माँ सरस्वती का ही सबल है।
पत्रिका के विद्वत दल में प्रधान सम्पादक, कार्यकारी सम्पादक, अतिथि सम्पादक, विशेषांक सम्पादक और व्यवस्थापक हर स्तर के महत्वपूर्ण कद हैं। पत्रिका के सतह से तह तक बढ़ने पर लगता है इनमें से हर एक अपना फर्ज मुस्तैदी से निभाते हैं।
इन्हीं अंकों के मध्य एक जगह ‘सरस्वती सुमन’ पत्रिका के व्यवस्थापक के शब्द हैं- ‘समस्त शुभचिंतकों,पाठकों, सदस्यों एवं मित्रों से आग्रह है कि हमें व्यवस्था को हमारे नियमों से संचालित करने में सहयोग दें।’ यह पत्रिका के समस्त चयन मण्डल की मेहनत का ही प्रतिफल है कि पत्रिका के हर एक अंक के भाव, बिम्ब और गहरे अर्थ हैं।
‘सरस्वती सुमन’ से जुड़ा एक खास तथ्य यह भी है कि पत्रिका के कहानी विशेषांक, गीत विशेषांक, व्यंग्य विशेषांक, सिनेमा अंक, नारी विशेषांक, क्षणिका विशेषांक, किन्नर विशेषांक, बाल साहित्य विशेषांक, दोहा विशेषांक, हाइकु शोध परिश्ष्ठि, हमारी धरोहर अंक, रिश्ते नाते विशेषांक, डा.उर्मिल विशेषांक शोध परक एवं संग्रहणीय निकले हैं।
पत्रिका के व्यवस्थापक कहते हैं कि आज भी प्रदेश और देश ही नहीं अपितु मॉरीशस, अमेरिका लंदन तक ‘सरस्वती सुमन’ के पाठक हैं। अगस्त 2022 के अंक में पत्रिका के व्यवस्थापक के लिखे शब्द पढ़े -‘ पत्रिका परिवार किसी प्रकार के सरकारी अथवा गैर सरकारी विज्ञापन अथवा सहयोग स्वीकार नहीं करता है।’ मंहगाई के दौर में यह युक्ति बहुत बड़ी लकीर है।
लेकिन अक्टूबर -2022 के अंक में पुनः वही कलम लिखती है कि – ‘आपकी प्रिय पत्रिका बिना किसी सरकारी सहयोग या बड़ी कम्पनियों के विज्ञापन सहयोग के विगत 14 वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही है। प्रत्येक अंक पर हमें लगभग पचास हजार रुपयों की हानि होती है। यदि इस दिशा में आपका सहयोग हमें मिले तो हमारा बोझ कुछ कम दिशा हो सकता है।’ यह युक्ति भी सही है क्योंकि कागज, स्याही के दाम भी तो बढ़े ही हैं। खैर मन में दुविधा क्यों रखें?
सीधे आनन्द सुमन जी से ही इन पंक्तियों का आशय समझने का प्रयत्न करते हैं। आप सीधे सपाट ढंग से अपनी बात रखते हैं- ‘ देखो जी! संकट तो जैसे पहले था वैसा आज भी है। पाठक अंग्रेजी की पत्रिकाएं खरीदकर पढ़ते हैं लेकिन हिन्दी की पत्रिका खरीदना चाहते ही नहीं हैं। कुछ तो ऐसे पाठक भी हैं कि उन्हें अगर पत्रिका पाँच बार भी भेजो तब भी कहते हैं हमें पत्रिका मिली ही नहीं है। ऐेसे में क्या डाक विभाग को कटघरे में खड़ा करें? खैर, ध्येय है! लेकिन यह भी सत्य है कि हानि तो उठा ही रहे हैं। फिर भी आज 9000 हजार प्रतियां छाप रहे हैं। सरकारी सहयोग या विज्ञापन आज भी नहीं ले रहे हैं। यहां तक की कभी रोजी-रोटी से भी पत्रिका के तार नहीं जोड़े गये।’
आनन्द जी एक सवाल यह भी है – पहाड़ क्या है आपकी दृष्टि में?
आपका जवाब है- ‘पहाड़ का पानी और मिट्टी सबसे कीमती है। उन्हें हर हाल में बचाया जाना चाहिए। साहित्य और संस्कृति का मूलाधार ही मिट्टी और पानी है। ससुराल श्रीनगर के पास बडियारगढ़ है। यूं भी पहाड़ और तराई दोनों के साथ सामंजस्य बिठा कर चलता हूं! और बेहिचक कहता हूं कि गेंहू भले ही बुलन्दशहर का खाता हूं लेकिन पानी पहाड़ का ही पीता हूं।’ तपाक पूछा- ऐसा क्यों? सीधा सा जवाब देते हैं- ‘भाई पहाड़ में गेंहूं होता कहाँ है।’
लगता है आपके ये शब्द पहाड़ की आत्मकथा से हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व इन्हीं पंक्तियों को आगे बढ़ाते हुए राशिनकर जी कुरेदे- ‘राशिनकर जी! ‘सरस्वती सुमन’ के हर एक अंक के मुख पृष्ठ पर आप छाए हैं, क्या कहेंगे?’ कहने लगे- ‘आनन्द सुमन जी प्रतिभा के धनी हैं। जहां बड़े प्रकाशन समूहों की पत्रिकाएं बंद हो रही हैं वहीं उत्तराखण्ड से आनन्द सुमन जी एक स्तरीय पत्रिका निकाल रहे हैं। इससे बड़े गर्व की बात और क्या हो सकती है। और हाँ! पत्रिका का नवम्बर 2023 का ‘सरस्वती वन्दना विशेषांक’ यूनिक है। मेरी दृष्टि में यह सरस्वती वन्दना पर निकला अभी तक का पहला अंक है।’
निश्चित रूप से अग्रज डा. आनन्द सुमन जी की प्रतिभा पर हमें भी गर्व है। आपकी एक कविता की पंक्तियां हैं-‘बटोही ठंडी सांस न ले/आयेगी एक दिन मंजिल पास/बांध रख कर्म पर तू आस/बुझेगी तब ही तेरी प्यास/बटोही ठंडी सांस न ले!’
आप राष्ट्रभाषा की सेवा में यूं ही अडिग,अनवरत रहें! आपकी दीर्घ आयु की मंगल कामना सहित ‘सरस्वती सुमन’ के लिए भी हमारी अशेष शुभकामनाएं हैं अग्रज श्रेष्ठ!