ताउम्र पहाड़ को समर्पित थे पहाड़ पुत्र बीपी नौटियाल
– नाबार्ड के जीएम और उद्यान विभाग के निदेशक थे डा. नौटियाल
– पहाड़ को बचाने और बसाने की रही जिद
उत्तरजन टुडे के मैनेजिंग एडिटर और बागवानी विभाग के पूर्व निदेशक डा. बीपी नौटियाल का आज एक लुच्ची सी बीमारी के कारण निधन हो गया। उन्होंने आज दोपहर साढ़े तीन बजे करीब देहरादून के मैक्स अस्पताल में अंतिम सांस ली। डा. भगवती प्रसाद नौटियाल मेरे लिए एक गुरु, एक अग्रज और पहाड़ की माटी और थाती को समर्पित योद्धा थे। उनके जीवन से मुझे ईमानदारी की सीख मिलती रही है। मन बेहद उदास है, लेकिन असीम दुख के बावजूद उंगलियां की-बोर्ड पर दौड़ रही हैं और मन में डा. नौटियाल से जुड़ी यादों की बारात निकल रही है।
पिछले महीने ही एसबीपीएस में फीलगुड की किताब का विमोचन था। डा. बीपी नौटियाल भी विशिष्ट अतिथि के तौर पर पहुंचे थे। यूकॉस्ट के डायरेक्टर दुर्गेश पंत थे। उद्घोषक डा. नौटियाल को नाबार्ड का जीएम बता रहा था। मैं उठा और कहा कि ये बागवानी निदेशक भी थे, लेकिन बाजवा की तरह नहीं। पूरा प्रागंण ठहाकों से गूंज उठा था। संग्राम में हथियार होता है और कलम से कोई बड़ा हथियार नहीं होता। शिक्षक पिता परमानंद शास्त्री की सीख को जीवन भर गांठ में समेटे भगवती ने कलम से पहाड़ लिखा और मन, क्रम, वचन से पहाड़ जिया।
रिटायरमेंट के बाद भी मैंने डा. नौटियाल को पहाड़ की चिन्ता के लिए घुलते हुए देखा। उनकी सोच और चिन्ता में पहाड़ रचा-बसा था। अक्सर कहते कि पहाड़ बसाना है कि वहां बागवानी और नगदी फसलों को प्रमुखता देनी होगी। काश्तकारों को बाजार उपलब्ध कराना होगा। उनके पहाड़ प्रेम का परिणाम था कि उन्होंने पीएचडी के लिए तुंगनाथ जैसे ऊंचे इलाके में फसलों पर पड़ने वाले प्रभाव को चुना। उन्होंने बाद में तुंगनाथ में पालीहाउस में टमाटर, मटर और बीन्स उगाने के प्रयास किये। जब मैंने उनसे पूछा कि तुंगनाथ में क्या प्रयास रहे, वो जोर से खिलखिला उठे और बोले, जब बाहर तापमान जीरो हो तो पालीहाउस में क्या होगा?
1979 में डा. नौटियाल जब गढ़वाल विश्वविद्यालय में पढ़ते थे तो वो हिमालय पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा के बेहद करीबी और उनके मुंहलगे युवा समर्थक थे। लेकिन जब बात पहाड़ की आई तो उन्होंने बहुगुणा के राजनीतिक कद की परवाह न करते हुए पहाड़ के लिए लड़-भिड़ने वाले सुंदरलाल बहुगुणा को चुना। यानी राजनीति की तुलना में प्रकृति और पहाड़ से नाता जोड़ा।
डा. बीपी नौटियाल ने सुंदरलाल बहुगुणा के साथ में आराकोट से शिमला तक की कागज बचाओ पदयात्रा की। लगभग 500 किलोमीटर की पदयात्रा थी। इसमें पांच लोग शामिल थे। एक दिन जब वो जुब्बल के राजा के निवास तक पहुंचे तो रात गहरा गयी थी। उन्होंने राजा से रात गुजारने के लिए जगह मांगी तो जगह नहीं मिली। तो पांचों ने एक आरामिल में रात गुजारी। वहां एक मुस्लिम ने उन्हें जगह और खाने के लिए आड़ू, खुमानी और भुने हुए आलू दिये।
श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय में फारेस्टी डिपार्टमेंट शुरू करने का श्रेय भी डा. बीपी नौटियाल को है। उनके गुरु प्रो. एएन पुरोहित ने उनकी मदद की। नाबार्ड में वो विभिन्न पदों पर रहे और पूरी ईमानदारी से पहाड़ के लिए काम करते रहे। 2008 में उन्होंने नाबार्ड की महाप्रबंधक पद से वीआरएस लिया और उत्तराखंड के नेताओं और नौकरशाहों के कुचक्र में फंस गये। उन्हें बागवानी विभाग का निदेशक बनाया गया और फिर गलत काम करने को कहा, लेकिन वो भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के लिए गले की फांस बन गये। ऐसा ईमानदार अफसर किसी काम का न था तो उन्हें हटाने के लिए षडयंत्र रचा गया तो वह हाईकोर्ट पहुंच गये। तीन साल के कार्यकाल के बाद ही यह पद छोड़ा। 2013 में वो भरसार विश्वविद्यालय के डीन बने। 2017 में माजरीग्रांट में फूड प्रोसेंसिंग यूनिट की जिम्मेदारी संभाली। साथ ही वह शिल्पी का प्रकाशन करने लगे। पिता के दिये संस्कार कलम हथियार की तरह इस्तेमाल की। पहाड़ के युवाओं को स्वरोजगार और बागवानी के लिए प्रेरित किया।
वह अक्सर मुझे कहते कि नौकरशाही की पूरी व्यवस्था में बदलाव की जरूरत है। हमें पहाड़ के युवाओं को नौकरशाहों के तौर पर तैयार करना होगा। पीसीएस और आईएफएस को एलबीएस या हैदराबाद में ट्रेनिंग देनी होगी। वह राजधानी को गैरसैंण ले जाने के कट्टर समर्थक थे।
डा. भगवती प्रसाद नौटियाल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। कालेज समय से वह नाटक लिखते और उनका मंचन करते थे। 1974 में लिखा उनके नाटक खून का दाग खूब सराहा गया। इतिहास का पन्ना और अमरपुष्प् नाटक भी चर्चित रहे। अमर पुष्प श्रीदेव सुमन पर आधारित नाटक था। जटरोफा पर शोध और कई लेख प्रकाशित हुए। उत्तरजन टुडे पत्रिका को धार देने में उनका अहम योगदान रहा है।
आज उनके निधन से मैं खुद को असहाय सा महसूस कर रहा हूं। उत्तरजन टुडे परिवार और पहाड़ का एक मजबूत स्तंभ ढह गया। डा. बीपी नौटियाल को अश्रुपूर्ण विदाई और भावभीनी श्रद्धांजलि। आप हमेशा मेरे हृदय में रहेंगे।
साभार: वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से